एपिसोड 1
अनुक्रम
एपिसोड 1-2 : आस्था
एपिसोड 3-5 : मरीचिका
एपिसोड 6-8 : कांच पर कोहरा
एपिसोड 9-11 : मिथ्या
एपिसोड 12-14 : निर्विकल्प
___________________________________
वह चिल्लाना चाहता था लेकिन चुप रहा, मॉं के उठ जाने का डर था। लेकिन बिस्तर पर उछलने में कोई डर न था, वह पलंग पर कूदने लगा — हॉं, वे दो ही थीं, मुझे पहले ही लगता था। एक चीनी खा रही है, दूसरी जंगले पर कुछ कुतर रही है।
कहानी: आस्था
डर
खाली गिलास मुॅंह से लगा वह हवा भीतर खींचने लगा। उसके गाल पिचक गये। फिर उसने गिलास थामे अपने हाथ धीमे से अलग कर लिये। लेकिन गिलास नहीं गिरा, उसके होठों से चिपका रहा। कुछ पल बाद उसकी सांस भिंचने लगी, लेकिन वह पूरे आवेग से अंतिम क्षण तक सांस खींचता रहा। और फिर उसकी सांस छूट गई, गिलास झटके से जमीन पर जा गिरा, देर तक टनटनाता रहा।
वह गहरी सांस भर रहा था। डर भी लगता था, बगल के कमरे में सोयी मॉं न उठ जायें। वह दबे कदमों से बाहर आया, मॉं के कमरे में झांका, वह सो रही थीं। वापस अपने कमरे में आ गया, गिलास उठा मेज पर रख दिया। चारों ओर देखा — कोई न था।
लेकिन वहीं कहीं वे दोनों भी थीं, जिन्हें वह अरसे तक एक ही समझता रहा था। गलती उसकी नहीं थी। दोनों का रंग, रूप, देह, सब एक जैसे थे। एक उसके पलंग पर बैठ जाती, दूसरी जंगले का पर्दा मसल रही होती। कभी उसे अंदेशा भी हो जाता था कि कहीं ये दो तो नहीं।
उस दिन वह कमरे में आया तो ठिठक गया ..... वह उसकी किताबों के पीछे से झांक रही थी, जबकि उसे उसने अभी-अभी कमरे की दहलीज पर देखा था। वह चौंक कर पीछे मुड़ा...दहलीज पर अक्टूबर की धूप का कंचे सा वृत्त चमक रहा था, वहॉं कोई न था। उसने दुबारा मुड़कर देखा, वह अभी भी किताबों के पीछे से उत्सुक निगाहों से उसे घूर रही थी। उसने उसकी ओर धीमे से उंगलियॉं बढ़ाईं, वह तुरंत वहॉं से भाग गई, कमरे से बाहर निकल गई। और तब उसने उस एक से दोस्ती करने के लिये जुगत लगानी शुरु कर दी थी।
बिल्ली के चारों पंजों पर मां के कमरे में झांकता हुआ वह रसोई की ओर बढ़ा। चीनी भुसकने के लिये। डिब्बे में हाथ डाल मुठ्ठी भर चीनी निकाली। आधी मुॅंह में डाल बाकी अपने कमरे में जा फर्श पर बिखरा दी। नन्हे मोतियों से दाने जमीन पर छितर गये।
आ आ आ…पुच्च, पुच्च…। वह महीन आवाज में उसे पुकार रहा था कि कहीं मॉं को सुनाई न पड़ जाये। लेकिन वह देर तक न आती। वह थक कर बाहर निकल आता। पेड़ की छांव के नीचे गैया सुस्ता रहीं होती थीं। उनके होठों से रिसता फेन नीचे बह आता था। वे अपनी पीठ पर बैठी मक्खियों को उड़़ाने के लिये पूॅंछ फटकारती थीं। वह सब कुछ भूल जाता था…उसे भी, चीनी के दानों को भी।
एक भूरी गाय के क़रीब आ उसने आहिस्ते से हाथ उसकी ओर बढ़ाया। गाय ने झटके से अपना सिर हिलाया। उसके पैने सींगों को देख वह थोड़ा पीछे हटा, दुबारा उसकी ओर बढ़ा। इस बार गाय चुप बैठी जुगाली करती रही और वह आगे बढ़ उसके गर्दन के नीचे लटकता नर्म गुलगुला मांस सहलाने लगा। अचानक उसकी निगाह सामने लगे बिजली के खंभे पर गई थी, वह गाय को छोड़ वहॉं चला आया।
उसके हाथ में एक छोटा पत्थर चमक रहा था जिसे वह थोड़ी देर उछालता रहा। फिर उसने कस कर निशाना साधा। लेकिन पत्थर अक्सर खंभे पर न लग किसी घर के दरवाजे या दीवार पर जा टकराता था। ठक् की आवाज होती और वह दौड़ कर किसी ओट में छुप जाता। उसकी साँसें तेज होती जाती थीं। उड़ती धूल उसके बालों, ऑंखों में भरती जाती। सहसा उसे कुछ याद आ जाता था…मॉं फिर डॉंटेगी, पूरी दुपहरी धूप में न जाने कहॉं डोलता फिरा था। वह चुपचाप घर लौट आता।
अंदर आ उसने मॉं के कमरे में झांका...शुक्र था वह अभी भी सो रही थीं। उसने चप्पल उतार गुसलखाने में जा पैर रगड़ कर धोये, पैर पोंछ अपने कमरे में आ गया। उसके हिये में हूक उठने लगी। चीनी के महज एक दो दाने बचे थे। वह रुआंसा हो गया। कई दिनों से सोचता था कि उसे अपने हाथों से चीनी खिलायेगा। पर वह सामने आने में तो शरमाती थी, जब वह नहीं होता था, सब चट कर जाती थी। उस रात और अगले दिन स्कूल में वह यही सोचता रहा…क्या कोई तरकीब थी? और स्कूल से लौटते में उसे कुछ सूझ गया था।
अगली दोपहर जब वह स्कूल बस से उतरा तो रोज की तरह बस स्टॉप पर मॉं उसका इंतजार कर रहीं थीं। वह बोतल झुलाते हुये मॉं की ओर बढ़ा, फिर सहसा थम गया।
‘क्या हुआ,क्यों रुक गया।’ मॉं उसके कंधे पर टंगा बैग उतारने के लिये आगे बढ़ीं। पर उसने हाथ हटा दिया।
‘क्या बात है? ला बैग दे।’
‘नहीं दॅूंगा।’
‘क्यों नहीं देगा?’
वह चुप खड़ा रहा।
‘ला दे, भारी होगा।’ पर उसने फिर से हाथ हटा दिया।‘रहने दे नहीं देना है तो, चल तो सही।’ मॉं आगे बढ़ गईं। कुछ दूर पहुॅंच उन्होंने मुड़ कर देखा, वह वहीं खड़ा था। ‘अब क्या हो गया?
वह चुप वहीं खड़ा रहा। मॉं उसके पास आ गई। उस तक झुक गईं। ‘क्या हुआ?’
उसने मॉं की ओर हाथ बढ़ा दिये।‘फिर से गोदी, नहीं आज गोदी नहीं।’ मॉं पीछे हट गईं।
‘गोदी में जाऊँगा।’
‘इत्ता बड़ा हो गया…कोई देखेगा तो क्या कहेगा।’
मॉं कुछ देर उसे देखती रहीं, फिर उसे उठा लिया।
वह मॉं की बाहों में मजे से झूलता जा रहा था। कुछ देर बाद वह हाथ पैर झटकने लगा ‘मुझे उतारो...।’
‘अब क्या हो गया।’ मॉं ने उसे नीचे उतार दिया। उसने एक कंकड़ उठा सामने खंभे पर साधा। इस बार निशाना ठीक बैठा था। मॉं उसके पीछे भागीं, पर वह तेजी से घर में घुस गया।
उस दोपहर वह चीनी बिखरा बिस्तर पर ऑंखें मॅूंद लेट गया, सोने का बहाना कर रहा था। उसे सोया जान वह बाहर निकलेगी और वह सामने आ जायेगा.....देखो, मैं हूँ जो तुम्हें रोज चीनी डालता हूँ। जरा भी खटका होता, वह उठकर देखने लगता। पर दाने ज्यों के त्यों पड़े थे। एक बार उसे लगा, दाने कम हो गये हैं, वह ले गई है। वह पलंग से उठकर दाने गिनने लगा। शायद कम थे। उसने खुद को लापरवाही के लिये धिक्कारा, पर लगा शायद बार-बार उठ कर बैठने से वह समझ गई हो कि वह सोने का बहाना कर रहा है। वह दुबारा आ कर लेट गया।
बंद खिड़की की दरारों से रिसता मद्धिम प्रकाश कमरे में उजाले का भ्रम पैदा कर रहा था। वह छत से झरते पलस्तर से बन आयी आढ़ी-तिरछी आकृतियों को नाम देने लगा — हिंदी वाली मैडम, बूढ़ी नानी…और चूहा। तभी कोई हलचल हुई थी, उसने बिस्तर पर लेटे हुए आँख मिचका कर देखा और…उसकी पुतलियॉं नाचने लगीं। उसके होंठ खुले रह गये। वह चिल्लाना चाहता था लेकिन चुप रहा, मॉं के उठ जाने का डर था। लेकिन बिस्तर पर उछलने में कोई डर न था, वह पलंग पर कूदने लगा — हॉं, वे दो ही थीं, मुझे पहले ही लगता था। एक चीनी खा रही है, दूसरी जंगले पर कुछ कुतर रही है। वह कभी एक को देखता, कभी दूसरी को।
बिट्टू के बच्चे! क्यों उधम मचा रहा है।
वह छम्म पड़ गया। शुक्र था, मॉं अपने कमरे से ही कह रही थीं।
उस रात उसे देर तक नींद नहीं आयी। तो यहॉं दूसरी भी है! उसने उठकर टैबिल लैंप जलाया, धीमे से दीवार के कोने तक आ गया। एक छोटा सा सुराख फर्श व दीवार के बीच लैंप की रोशनी में चमक रहा था। उसने धीमे से पुकारा —आ..आ..पुच्च..पुच्च ...। उसने जेब से ब्रैड निकाली, जो उसने फ्रिज से ली थी। छोटे-छोटे टुकड़े डाल पीछे हट गया।
सहसा सुराख से बाहर आता नन्हा-सा सिर सफेद आलोक में चमक उठा.....उत्सुक ऑंखें, पतंग के मंजे सी मॅूंछ, अनारदानों से दांत....तभी दूसरी भी बाहर आ गयी थी। वह उठकर अपने पलंग पर आ गया। वे दोनों देर तक कमरे में धमाचौकड़ी करती रहीं थीं। किताबों के ऊपर, जंगले पर, फ़र्श पर। वह उन्हें देर तक देखता रहा फिर न जाने कब उसकी पलकें मुंद गईं।
अगले एपिसोड के लिए कॉइन कलेक्ट करें और पढ़ना जारी रखें
कमेंट (1)
- PRAVEEN MIRDHA
yes...bachpan ki dopahar kuch na kuch karte hue hi bitayi...kuch pustakon ka sath..nandan chandamama champak paraag aaj b yaad aati...and learning embroidery...still remember dabe paanv idhar udhar kuch na kuch...khatpat karna...!!!
0 likes