एपिसोड 1
‘’यदि आज मैंने लोगों को लूटकर अपना घर भर लिया होता तो लोग मुझसे संबंध करना अपना सौभाग्य समझते; नहीं तो सीधे मुंह कोई बात भी नहीं करता है। परमात्मा के दरबार में यह न्याय होता है। अब दो ही उपाय हैं या तो सुमन को किसी कंगाल के पल्ले बांध दूं या कोई सोने की चिड़िया फंसाऊं। पहली बात तो होने से रही; बस अब सोने की चिड़िया की खोज में निकलता हूं....।’’
आंखों में आंसू
पश्चाताप के कड़वे फल कभी-न कभी सभी को चखने पड़ते हैं, लेकिन और लोग बुराइयों पर पछताते हैं, दरोगा कृष्णचंद्र अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे। उन्हें थानेदारी करते हुए पचीस वर्ष हो गए; लेकिन उन्होंने अपनी नीयत को कभी बिगड़ने न दिया था। यौवनकाल में भी जब चित्त भोग-विलास के लिए व्याकुल रहता है उन्होंने नि:स्पृहभाव से अपना कर्तव्य-पालन किया था। लेकिन इतने दिनों के बाद आज वह अपनी सरलता और विवेक पर हाथ मल रहे थे। उनकी पत्नी गंगाजली सती-साध्वी स्त्री थी। उसने सदैव अपने पति को कुमार्ग से बचाया था। उसे स्वयं संदेह हो रहा था कि वह जीवन भर की सच्चरित्रता बिल्कुल व्यर्थ तो नहीं हो गई? दरोगा कृष्णचंद्र रसिक, उदार और बड़े सज्जन मनुष्य थे। मातहतों के साथ वह भाईचारे का सा व्यवहार करते थे; किन्तु मातहतों की दृष्टि में उनके व्यवहार का कुछ मूल्य न था। वह कहा करते थे कि यहां हमारा पेट नहीं भरता, हम इनकी भलमनसी को लेकर क्या करें-चाटें? हमें घुड़की, डांट-डपट, सख्ती सब स्वीकार है, केवल हमारा पेट भरना चाहिए। रूखी रोटियां चांदी के थाल में परोसी जाएं तो भी पूरियां न हो जाएंगी।
दरोगाजी के अफ़सर भी उनसे प्राय: प्रसन्न न रहते। वह दूसरे थाने में जाते तो उनका बड़ा आदर-सत्कार होता था, उनके अहलमद मुहर्रिर और अर्दली खूब दावत उड़ाते। अहलमद को नज़राना मिलता, अरदली इनाम पाता और अफ़सरों को नित्य डालिया मिलती पर कृष्णचंद्र के यहां यह आदर सत्कार कहां? वह न दावत करते थे, न डालिया ही लगाते थे। जो किसी से लेता नहीं, वह किसी को देगा कहां से? दरोगा कृष्णचंद्र की इस शुष्कता को लोग अभिमान समझते थे।
इतना निर्लोभ होने पर भी दरोगाजी के स्वभाव में किफ़ायत का नाम न था। वे स्वयं तो शौकीन नहीं थे, लेकिन अपने घरवालों को आराम देना अपना कर्तव्य समझते थे। उनके सिवा घर में तीन प्राणी और थे- स्त्री और दो लड़कियां। दरोगाजी इन दोनों लड़कियों को प्राण से भी अधिक प्यार करते थे। उनके लिए शहर से अच्छे-अच्छे कपड़े मंगाते और नित्य तरह-तरह की चीज़ें मंगाया करते। बाज़ार में कोई तहरदार कपड़ा देखकर उनका जी नहीं मानता था, लड़कियों के लिए अवश्य ले जाते थे। घर में सामान जमा करने की अलग धुन थी। समूचा मकान कुर्सियों, मेज़ों और अल्मारियों से भरा था। नगीने के कलमदान, झांसी के कालीन, आगरे की दरियां बाज़ार में नज़र आ जाती तो उन पर लट्टू हो जाते थे। कोई लूट के धन पर भी इस भांति न टूटता होगा। लड़कियों को पढ़ाने और सीना-पिरोना सिखाने के लिए ईसाई लेडी रख ली थी। कभी-कभी स्वयं उनकी परीक्षा लिया करते थे।
गंगाजली चतुर स्त्री थीं। उन्हें समझाया करती थीं कि ज़रा हाथ रोककर खर्च करो। जीवन में यदि और कुछ नहीं करना है तो लड़कियों का विवाह तो करना ही पड़ेगा। उस समय किसके सामने हाथ फैलाते फिरोगे। अभी तो उन्हें मखमली जूतियां पहनाते फिरते हो, कुछ इसकी भी चिंता है कि आगे क्या होगा? दरोगाजी इन बातों को हंसी में उड़ाते चलते थे कि जैसे और सब काम चलते हैं, वैसे ही वह काम भी हो जाएगा। कभी झुंझलाकर कहते कि ऐसी बातें करके मेरे ऊपर चिंता का बोझ मत डालो। इस प्रकार दिन बीतते चले जाते थे। दोनों लड़कियां कमल के समान खिलती जाती थीं। बड़ी लड़की सुमन सुंदर चंचल और अभिमानिनी थी। छोटी लड़की शांता भोली, गंभीर और सुशील थी। सुमन दूसरों से बढ़कर रहना चाहती थी। यदि बाज़ार से दोनों बहनों के लिए एक ही प्रकार की साड़ियां आती तो सुमन मुंह फुला लेती थी। शांता को जो कुछ मिल जाता, उसी में प्रसन्न रहती।
गंगाजली पुराने विचार के अनुसार लड़कियों के ऋण से शीघ्र मुक्त होना चाहती थी, पर दरोगाजी कहते, यह अभी विवाह योग्य नहीं हैं। शास्त्रों में लिखा है कि कन्या का विवाह 16 वर्ष की आयु से पहले करना पाप है। वह इस प्रकार समझाकर मन को टालते रहते थे। समाचारपत्रों में जब वह दहेज़ के विरोध में बड़े-बड़े लेख पढ़ते तो बहुत प्रसन्न होते! गंगाजली से कहते कि अब एक ही दो साल में यह कुरीति मिटी जाती है। चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है। यहां तक कि इसी तरह सुमन को सोलहवां लग गया।
अब कृष्णचंद्र अपने को अधिक धोखा न दे सके। उनकी पूर्व निश्चितंता वैसी न थी, जो अपनी सामर्थ्य के ज्ञान से उत्पन्न होती है। उस पथिक के भांति जो दिन-भर किसी वृक्ष के नीचे आराम से सोने के बाद संध्या को उठे और सामने एक ऊंचा पहाड़ देखकर हिम्मत हार बैठे, दरोगाजी भी घबरा गए। वर की खोज में दौड़ने लगे, कई जगहों से टिप्पणियां मंगवाई। वह शिक्षित परिवार चाहते थे। वह समझते थे कि ऐसे घरों में लेन-देन की चर्चा न होगी, पर उन्हें यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वरों का मोल उनकी शिक्षा के अनुसार है। राशि-वर्ण ठीक हो जाने के बाद जब लेन-देन की बातें होने लगतीं, तब कृष्णचंद्र की आंखों के सामने अंधेरा छा जाता था। कोई हजार सुनाता, कोई पांच हजार और कोई इससे भी आगे बढ़ जाता। बेचारे निराश होकर लौट आते।
आज छ: महीने से दरोगाजी इसी चिंता में पड़े हैं। बुद्धि काम नहीं करती। इसमें संदेह नहीं कि शिक्षित सज्जनों को उनसे सहानुभूति थी; पर वह एक-न-एक ऐसी पख निकाल देते थे कि दरोगाजी को निरुत्तर हो जाना पड़ता।
एक सज्जन ने कहा- ‘’महाशय, मैं स्वयं इस कुप्रथा का जानी दुश्मन हूं, लेकिन क्या करूं? अभी पिछले साल लड़की का विवाह किया, दो हज़ार रुपये केवल दहेज़ में देने पड़े, दो हज़ार खाने-पीने में खर्च हुए। आप ही कहिए, यह कैसे पूरे हों?
दूसरे महाशय इनसे अधिक नीति कुशल थे। बोले- ‘’दरोगाजी मैंने लड़के को पाला है, सहस्त्रों रुपये उसकी पढ़ाई में खर्च किए हैं। आपकी लड़की को इससे उतना ही लाभ होगा, जितना मेरे लड़के को, तो आप ही न्याय कीजिए कि यह सारा भार मैं अकेले कैसे उठा सकता हूं।’’
कृष्णचंद्र को अपनी ईमानदारी और सच्चाई पर पश्चाताप होने लगा। अपनी निस्पृहता पर उन्हें जो घमंड था, वह टूट गया। सोच रहे थे कि यदि मैं पाप से न डरता तो आज मुझे यों ठोकरें न खानी पड़तीं।
इस समय दोनों स्त्री-पुरुष चिंता में डूबे बैठे थे, बड़ी देर के बाद कृष्णचंद्र बोले- ‘’देख लिया संसार में सन्मार्ग पर चलने का यह फल होता है। यदि आज मैंने लोगों को लूटकर अपना घर भर लिया होता तो लोग मुझसे संबंध करना अपना सौभाग्य समझते; नहीं तो सीधे मुंह कोई बात भी नहीं करता है। परमात्मा के दरबार में यह न्याय होता है। अब दो ही उपाय हैं या तो सुमन को किसी कंगाल के पल्ले बांध दूं या कोई सोने की चिड़िया फंसाऊं। पहली बात तो होने से रही; बस अब सोने की चिड़िया की खोज में निकलता हूं। पहली बात तो होने से रही; बस अब सोने की चिड़िया की खोज में निकलता हूं। धर्म का मज़ा चख लिया, सुनीति का हाल भी देख चुका। अब लोगों के ख़ूब गले दबाऊंगा, ख़ूब रिश्वतें लूंगा, यही अंति म उपाय है। संसार यही चाहता है, यही सही। आज से मैं वही करूंगा जो सब लोग करते हैं।’’
गंगाजली सिर झुकाए अपने पति की ये बातें सुनकर दु:खित हो रही थी। वह चुप थी, आंखों में आंसू भरे हुए थे।
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कमेंट (9)
- balindra yadav
बहुत ही बेहतरीन लेख हैं।
1 likes - Arun Narayan
यह अच्छी पहल है। पहले एपिसोड में एक वाक्य दो बार रिपीट हो गया है।
1 likes - anjana bajpai
बेहतरीन लिखा 'दुनियां कल्पना से बहुत अलग है '
1 likes - Janu
loved
3 likes - Yashpal Vedji
बहुत खूब
2 likes - Vinodini Waghmare
भलेही दहेज ना लेने का कानून है,पर सच्चाई तो यह है कानूनसे मानसिकता बदली नही जाती। समाजमे विचार परिवर्तन करने की जरूरत है,और शुरूवात अपने खुदके घरचे सोनी चाहिये ।
3 likes - Vicky Kumar
vicky
2 likes - Brajendra
Is tarah ka kutrk ab bhi log dete hain
4 likes - Brajendra
Yeh to ab ki bhi sachchai hai...
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