एपिसोड 1
सिड ने ध्यान से उसकी तरफ देखा, इस रंग उड़े कस्बे में रहने वाली तो नहीं लग रही थीं। बेहद सलीके से महंगी बनारसी साड़ी बांधी हुई थी। जूड़े में खुसा एक लाल चमकता गुड़हल का फूल। गले में सोने की लंबी चेन में एक दमकता सा लॉकेट। कानों में हीरे के बुंदे। संभ्रांत परिवार की लग रही थी।
रंग उड़ा क़स्बा
दस दिन हुए थे यहां आए। थका सा कस्बा। सोए से लोग। अलसाया सा माहौल। हर तरफ धूल, गर्द, गुबार। शाम ढलते ही लगता था, पूरा कस्बा जैसे धुंधलाया सा हो गया हो। सड़क किनारे दुकानों पर मद्धम सी साठ वॉट की जलती हुई लाइट, जो अपनी किस्मत को रोती सी लगती थी।
सिड खुद भी झल्लाया सा रहता था। गेस्ट हाउस से फैक्टरी और फैक्टरी से गेस्टहाउस। गेस्टहाउस का केयरटेकर नानू भी उतना ही ठंडा और निर्जीव किस्म का बंदा था। चार दिन से लगातार उसे सूखी कड़क जली हुई चपातियों के साथ कुंदरू और लौकी की सब्जी खिला रहा था।
आज सुबह-सुबह ही सिड ने तय कर लिया, एक दिन भी अगर उसने गेस्ट हाउस में खाना खाया तो ज़िंदा नहीं रह पाएगा। फैक्टरी में बात करने लायक बस एक अधेड़ उम्र का एकाउंटेंट था। खुद को मिस्टर बनर्जी कह कर संबोधित करता। उससे लगभग एक हज़ार बार सिड रहने खाने-पीने की शिकायत कर चुका था। पर मजाल कि कभी उसने अपने घर आने का न्योता दिया हो।
सिड यहां आया था फैक्टरी का सौदा करवाने। बड़ी डील थी, जर्मनी की कंपनी खरीदना चाह रही थी। उनकी तरफ से सिड यहां फैक्टरी का मोल लगाने आया था।
मिस्टर बनर्जी खुद भी चाहते थे कि फैक्टरी को अगर कोई एमएनसी खरीद ले, तो उनकी पिछले कई सालों से जमी हुई तनख्वाह बढ़ जाए। उसके लिए लंच मिस्टर बनर्जी पास के एक रेस्तरां से मंगवाता था। लगभग रोज़ ही डोसा, इडली टाइप। आज मसाला डोसा के साथ पानीदार लौकी वाला सांभार देख सिड ने प्लेट आगे सरका दिया। मिस्टर बनर्जी अपना घर से लाया खाना खाते रहे। सिड ने पूछ ही लिया, ‘मिस्टर बनर्जी, यहां कोई ठीक सा रेस्तरां नहीं है क्या, जहां चिकन-शिकन मिले, कुछ दमदार खाना…’
मिस्टर बनर्जी ने गौर से सिड का चेहरा देखा फिर सोचते हुए कहा, ‘सर, एक ठो नानवेज रेस्तरां है तो। रेलवे स्टेशन देखा है न? बस उसके रास्ते में है। इधर से दूर पड़ता है, दस किलोमीटर। उधर सब मिलता है, छोटा मांस, बड़ा बांस, खंबा… ’ हाथ से दारू का इशारा करते हुए उसने बताया।
सिड ने सिर हिलाया। दस किलोमीटर क्या, आज तो अच्छे खाने के लिए वह चौबीस घंटे का भी सफर करने को तैयार है। वह उठने लगा तो मिस्टर बनर्जी ने जोर से कहा, ‘सर, इधर का सब होटल-बीटल दस बजे बंद हो जाता है। टाइम पर चले जाना।’
सिड ने मिस्टर बनर्जी को शुक्रिया कहा। शाम आठ बजे फैक्टरी से बाहर निकला। अपनी गाड़ी को उसने फर्राटे से स्टेशन की तरफ घुमा दिया। रास्ता थोड़ा सुनसान था। एकाध बसें और गाड़ियां बस। स्टेशन से लगभग तीन किलोमीटर पहले सड़क पर खड़ी एक पुरानी सी वैन नज़र आई। सिड को गुस्सा आया, अगर उसका ध्यान नहीं जाता तो टक्कर हो ही जानी थी। गाड़ी जरा सी आगे खड़ी कर ड्राइवर को गाली देने उतरा।
ड्राइवर गाड़ी के नीचे था। गाड़ी से उतर कर किनारे खड़ी थीं एक अधेड़ उम्र की शानदार औरत। उसके पीछे दुपट्टे से मुंह ढक कर खड़ी कुछ लड़कियां सी।
सिड ड्राइवर से कहते-कहते रुक गया। समझ आ गया कि वैन बीच सड़क पर बंद पड़ गई है। सिड ने कुछ ज़ोर से ड्राइवर से पूछा, ‘क्या हो गया बादशाहो?’
ड्राइवर ने वहीं से घरघराती आवाज़ में कुछ कहा, जिसका लब्बोलुबाब यह था कि उसे खुद भी नहीं पता और वह जांच रहा है।
सड़क किनारे खड़ी उस अधेड़ सुंदर औरत ने धीरे से कहा, ‘गाड़ी के इंजन से ज़ोर की आवाज़ आई, फिर रुक गई। बीस मिनट हो गए। लगता नहीं ठीक हो पाएगी।’
‘आप लोगों को कहां जाना है?’
‘स्टेशन… दस बजे की ट्रेन है…’
‘मैं उसी तरफ जा रहा हूं। आप कहें तो छोड़ देता हूं आप लोगों को।’
उस महिला के चेहरे पर कौतुक सा उभर आया। उसने ड्राइवर से पूछा, ‘बताओ तो भाई, हम जाएं क्या स्टेशन? तुम्हारी गाड़ी तो सही होती नहीं लगती?’
ड्राइवर फिर से घरघराता सा कुछ बोला, जो शायद सिर्फ उस महिला की समझ आया। उसने पलट कर सिड से कहा, ‘आपको तकलीफ तो नहीं होगी?’
‘नहीं, आप लोग सामान निकालिए, मैं डिक्की खोल रहा हूं।’
सिड ने देखा, महिला के अलावा तीन लड़कियां थीं। अल्हड़ सी चाल। फुसफुसाती हुई आपस में कुछ बोल रही थीं। सबने वैन से अपना सामान निकाल लिया। डिक्की में सामान रखने के बाद वे चुपचाप खड़ी हो गईं। महिला ने कहा, ‘तुम तीनों पीछे बैठो गाड़ी में।’ वे खुद गाड़ी का दरवाज़ा खोल कर आगे बैठ गईं।
दस मिनट में स्टेशन आ गया। तब तक महिला कुछ नहीं बोली। सिड ने ध्यान से उसकी तरफ देखा, इस रंग उड़े कस्बे में रहने वाली तो नहीं लग रही थीं। बेहद सलीके से महंगी बनारसी साड़ी बांधी हुई थी। जूड़े में खुसा एक लाल चमकता गुड़हल का फूल। गले में सोने की लंबी चेन में एक दमकता सा लॉकेट। कानों में हीरे के बुंदे। संभ्रांत परिवार की लग रही थी।
पुराने रंग उड़, उजाड़ स्टेशन के सामने सिड ने गाड़ी रोकी, महिला ने गाड़ी का शीशा नीचे कर सामने खड़े कुली से पूछा, ‘मुगलसराय जाने वाली ट्रेन कौन से प्लैटफॉर्म पर आएगी? सामान ले चलोगे?’
कुली अपना सिर खिड़की पर लगभग घुसाते हुए बोला, ‘बहन जी, गाड़ी तो बारह घंटे लेट चल रही है। सुबह दस बजे आवेगी…’
महिला के चेहरे पर परेशानी के भाव आ गए, ‘अरे… फिर…’
सिड गाड़ी से उतर गया। छोटा सा स्टेशन। हर कहीं गर्द और गंदगी । स्टेशन पर चाय का खोमचा सा था। बैठने के लिए बस एक बेंच, जिसमें कुछ भिखारी पहले से पसर कर बैठै थे। महिला रात भर अपनी तीन कन्याओं के साथ यहां कैसे रहेगी?
महिला गाड़ी से उतर आई और सिड से बोली, ‘हम रात यहीं रह लेंगे। क्या करें, जिस काम से आए थे, वह पूरा हो गया। आप जाइए। नाहक परेशान हो रहे हैं।’
महिला ने इशारा किया और तीनों लड़कियां गाड़ी से उतरने लगीं। सिड डिक्की खोलने लगा, सामान उतारने को ही था कि महिला ने कुली से पूछा, ‘भाई, यहां कहीं खाने को कुछ मिल जाएगा क्या? कोई होटल है पास में?’
कुली ने नहीं में सिर हिलाया, ‘खाने को तो इस बेर कुछ नहीं मिलेगा, ज्यादा से ज्यादा बिस्कुट और चाय मिलेगी।’
‘ओह,’ महिला बुदबुदाई, ‘अच्छी मुसीबत हो गई।’
सिड ने सामान बाहर नहीं निकाला, बल्कि डिक्की को वापस बंद कर महिला से बोला, ‘यहां पास में एक रेस्तरां हैं। मैं वहीं खाने जा रहा हूं। आप लोग भी चल सकती हैं…’
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कमेंट (4)
- Kr LP Singh
प्रारंभ अच्छा है
0 likes - Godara Vijay Jaat
ye madam sirf chodne wali khaniya likhti h lgta h bhot bhukhi h koi iski pyas bujhao
0 likes - Ravinder Singh
very nice and looking adventures lines
0 likes - Laxmi Narayan Kumawat
nice story
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