एपिसोड 1
"कितनी ही कहानियाँ वॉट्सऐप में बनती हैं
और दफ़्न हो जाती हैं
वॉट्सएप कहानियों का भ्रूण हत्या केन्द्र है।"
शेयर बाज़ार का धीमापन, सूचकांक को ऊपरी ट्रेंड लाइन को छूने से रोकता है। किन्तु, ज़िन्दगी में थोड़ा-सा धीमापन मन के सूचकांक को सम्वेदना के शिखर तक ले जाने में मदद करता है।
धीमापन
मुंबई। एक शाम। किञ्चित उदास। दिनभर का शोर समेटे। ख़ामोश। मरीन ड्राइव पर ढलती। दूर निर्जन छोर पर लुढ़कती। उस शाम चंदन मरीन ड्राइव से टहलते हुए ही चर्चगेट पहुँचा था। उसने सात छत्तीस की स्लो पकड़ी। यूँ चंदन और अन्धेरी से आगे, पर बोरीवली से पहले उतरने वाले चंदन जैसे हज़ारों-लाखों लोग प्रायः बोरीवली फास्ट में ही खुद को धकेला करते हैं। सबको तेज़ी से मंज़िल तक पहुँचने की जल्दी रहती है। जिन्हें ज़्यादा जल्दी रहती है, वे बहुत बार हादसे के शिकार भी हो जाते हैं। पर आज का दिन चंदन के लिए कुछ स्लो-सा था। सो उसने स्लो ही पकड़ ली। वैसे भी, फ़ास्ट का विकल्प दस मिनट की दूरी पर था और स्लो सामने से जाने वाली थी। शायद इंसान की फ़ितरत होती है कि वह बहुत बार इंतज़ार नहीं करना चाहता। जो छूट रहा होता है, उसे पकड़ लेने की जल्दबाज़ी में वह अक्सर सामने उपलब्ध विकल्प को चुन लेता है।
चंदन ने देश के सबसे तेज़ दौड़ते शहर में स्लो होना चुना था। शहर की तेज़ी के बीच ज़िन्दगी का ज़रा-सा धीमापन, शेयर बाज़ार की तेज़ी के बीच आने वाले धीमेपन से अलग होता है। शेयर बाज़ार का धीमापन, सूचकांक को ऊपरी ट्रेंड लाइन को छूने से रोकता है। किन्तु, ज़िन्दगी में कभी-कभी थोड़ा-सा धीमापन मन के सूचकांक को सम्वेदना के शिखर तक ले जाने में मदद करता है।
चंदन ऐसे ही धीमेपन के साथ स्लो में बैठा और स्लो अपनी रफ़्तार पकड़ते हुए निकल पड़ी। उसने अपने बैग से क़िताब निकाली और पढ़ने लगा। लोकल में लोग तीन काम आसानी से करते हुए चल सकते हैं। एक, पढ़ना। दूसरा, फ़िल्म देखना। और तीसरा, लूडो खेलना। एक क़िताब के पन्नों में डूबे कब एक के बाद एक स्टेशन निकलता गया, उसे पता नहीं चला। फिर अचानक उसके भीतर कहीं कुछ खटका। दिल ने अचानक जैसे कोई गंध महसूस की।
यूँ तो गंध को ग्रहण करना घ्राणेन्द्रियों का विषय है। किन्तु, जो ख़ुशबू धमनियों में जा बसी हो, वह हृदय से ही रक्त के साथ प्रवाहित होते हुए घ्राणेन्द्रियों तक पहुँचती है। उसे जैसे कोई आहट-सी हुई। जैसे यह स्टेशन कुछ अपना-सा है। परिचित। देखा-भाला। जैसे इससे कोई नाता है। जैसे कोई खड़ा है। इंतज़ार में। मुस्कुराता हुआ।
क़िताब के इकतालीसवें पन्ने में गड़ी नज़र को उसने खिड़की से ज़रा-सा बाहर की ओर फेंका। लोकल में आज उसे सीट मिल गई थी। वो भी खिड़की वाली। उसे भी खिड़की वाली सीट बहुत पसन्द थी। दरअसल, उसे खिड़कियाँ ही प्यारी लगती थीं। फिर चाहे वो लोकल की हों या घरों की। जब कभी वो दोनों साथ होते, चंदन तेज़ी से चढ़कर दो सीट घेर लेता और खिड़की वाली सीट उसे दे देता। वह उसे ही अपना तोहफ़ा मान लेती और कभी किसी तोहफ़े की माँग न करती। मुंबई लोकल प्रेम में जो तोहफ़े देने सिखाती है, दिल्ली मेट्रो वाले प्रेमी शायद ही उन्हें कभी समझ पाएँगे।
चर्चगेट से निकली ट्रेन एक के बाद एक स्टेशन पर रुकती, पार करते हुए चली जा रही थी। चंदन की नज़र दौड़ती गाड़ी की खिड़की से पहले प्लैटफ़ॉर्म पर गिरी। पहली नज़र में उसे उन कदमों के निशां नज़र आने लगे। फिर प्लैटफ़ॉर्म के अन्तिम छोर से कुछ पहले और लेडीज़ फर्स्ट क्लास से कुछ आगे फ़िक्स की गई वो बेंच दिखने लगी, जिस पर एक गर्म दोपहर को बैठी वो उसका इंतज़ार कर रही थी। उसने अपनी नज़र को प्लैटफ़ॉर्म पर ठीक वैसे ही दौड़ाया, जैसे उस दोपहर कॉमन फ़र्स्ट क्लास के लिए वो दोनों दौड़े थे। गाड़ी अभी रुकी नहीं थी। धीमी हो रही थी। रुकने से पहले सब कुछ धीमा होता है। चंदन की नज़र लोहे के जंग लग चुके, लेकिन पेंट हुए उस खम्भे पर लगे गोल नामपट्ट पर जाकर टिक गई। गाड़ी रुक गई थी। यह वही स्टेशन था। लोअर परेल। मुंबई लोकल के कुछ स्टेशन चंदन के अन्तरतम में बस चुके थे। जोगेश्वरी, सांताक्रूज़, लोअर परेल और मीरा रोड ऐसे ही चार स्टेशन थे। चर्चगेट और अन्धेरी से उसे कभी वैसी मुहब्बत न हुई, जैसी इन चार स्टेशनों से रही। वो लोअर परेल से फिर एक बार चंदन के साथ कॉमन वाले फ़र्स्ट क्लास में बैठ गई। आगे का सफ़र उन दोनों ने तो नहीं, पर चंदन ने ज़रूर उसके साथ तय किया, क्योंकि वो तो लौट चुकी है। अपने शहर भोपाल।
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कमेंट (13)
Anuj raj Pathak
बढ़िया yr बिना लेखक हुए अच्छा लिख दिया👌👌👌
2 likesDeepak Bhatia
लाजवाब , आप जैसे दृश्य चित्रण करने वाले बहुत कम लेखक है । इतना सजीव चित्त्रण मैंने बहुत कम पढ़ा है ।
3 likesParvathi Mogaveera
चंदन ऐसे ही धीमेपन के साथ .... और स्लो अपना रफ्तार.....बहुत बढ़िया।
3 likesVikas Vashisth likes
Deepti Singh
कितना सुंदर लिखा है।
3 likesDeepti Singh
💐💐💐💐💐
2 likesDeepti Singh
शायद इंसान की फितरत होती है कि वह बहुत बार इंतजार नहीं करना चाहता। ये कितनी सच बात है !
2 likesRUKHSAAR ALAM
दिल्ली मेट्रो वाले राजीव चौक पर समझते थे, जब कोविड नहीं था। एक वक़्त था, जब बिना निजी प्रयास के भीड़ का रेला आपको कहीं भी पहुंचा देता था। तब कई लोग चप्पू की तरह भीड़ को चीर कर अपने जानने वालों को जगह देते थे।
2 likesRUKHSAAR ALAM
बिंज में कॉपी पेस्ट का ऑप्शन और होता तो मैं आख़िरी लाइन निकाल लेती, स्क्रीनशॉट से काम चलाना होगा।
2 likesHimanshu Shekhar
यूं तो गंध को ग्रहण करना घ्राणेन्द्रियों का विषय है, किंतु जो खुशबू धमनियों में जा बसी हो, वह हृदय से ही रक्त के साथ प्रवाहित होते हुए घ्राणेन्द्रियों तक पहुंचती है।❤️❤️❤️
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