एपिसोड 1

अनुक्रम 

एपिसोड 1-6 : दरियाई घोड़ा
नया एपिसोड, नई कहानी 
एपिसोड 7 : नेलकटर
_________________________________

देखने से लगता था जैसे बहुत जल्दबाज़ी में उनके चेहरे को आधा कर डाला गया हो। होंठ टेढ़े होकर लटक गए थे। नाक एक ओर झुकी लग रही थी 

कहानी : दरियाई घोड़ा

मांस का लोथड़ा


अँधेरा ही दादा की आँखों में रहा होगा। वह किसी भी चीज़ को देखते नहीं लग रहे थे। सारी चीजे़ं जैसे पारदर्शी हो गई हों... अपना अस्तित्व उन्होंने खो दिया हो और दादा की आँखें जैसे उनके पार कहीं अटक गई हों। ऐसे अँधेरे में कई-कई रंगों के गुब्बारे तैरते हैं... ज्यामितियाँ और आकृतियाँ बनती हैं। फिर वे सब नष्ट हो जाती हैं।

और आवाज़ें भी वैसी ही क्षण भंगुर। अचानक जैसे रात में अपनी ही परछाईं में छिपे पेड़ों या झाड़ियों से एक साथ झींगुर बोलने लगे हों या दूर से, किसी पहाड़ी की चोटी पर कोई बहुत बारीक और मद्धिम आवाज़ में पुकारने लगा हो… ‘दादा ओ...ओ...ओ ...दादा’ फिर अचानक सब कुछ स्तब्ध। सन्नाटा।

बेहोशी टूटने के बाद भी वह होश में नहीं थे। अगर होश में होते तो सुबह नौ बजे के उल्लास से भरे कमरे की एक-एक चीज़ पर उनका कुतूहल ठहरता और वह फिर से इस दुनिया में लौट आने की घटना पर आश्चर्य से भर उठते। रात में आठ के आस-आस, कम से कम मैंने तो सोचा ही था कि अब वह लौटने से रहे।

लेकिन दादा फिर थे। उनके दायें गाल के नीचे से लेकर कान के पीछे गले तक का मांस ऑपरेशन से निकाल दिया गया था। एक विकराल खुला हुआ घाव वहाँ था। उनकी दायीं दाढ़ भी निकाल दी गई थी और इसीलिए उनके चेहरे का अनुपात बिगड़ गया था। देखने से लगता था जैसे बहुत जल्दबाज़ी में उनके चेहरे को आधा कर डाला गया हो। होंठ टेढ़े होकर लटक गए थे। नाक एक ओर झुकी लग रही थी और दायीं आँख बन्द होने के बावजूद बन्द रहे आने के लिए जद्दोजहद करती दिखाई पड़ती थी।

दादा को खू़न मैंने दिया था। मेरी उम्र अट्ठारह साल की थी और सारा खू़न आलू-रोटी खाने से बना था। उस खू़न में काजू, मुनक्का या तरह-तरह के फलों का सत नहीं था। और इस खू़न की मात्रा छह सौ सीसी थी। मैं अपने प्रति दया और गर्व से भरा हुआ था और प्रतीक्षा कर रहा था कि दादा के होश में आते ही मैं चिल्लाकर बताऊँ कि लो देखो, जिसे तुम सबसे ज़्यादा आवारा, फक्कड़, निकम्मा और गया-गुज़रा समझते थे, वह कितना वफ़ादार और पितृसेवक निकला। हरीश दा और अमरेंद्र तो उस वक़्त खिसक लिए। आखिर मैं ही काम आया न?

लेकिन दादा मुझे पहचान ही नहीं रहे थे। मुझे देखते हुए भी लगता था कि जैसे वह दूर किसी पुराने मन्दिर की गुम्बद के ऊपर मँडराती चील को देख रहे हों, या मेले की चकरी में दौड़ते लकड़ी के घोड़ों में से किसी एक को देख पाने की कठिन कोशिश में लगे हों… या नदी-किनारे फैली हुई दूर-दूर तक की रेत में उड़ते किसी पुराने अख़बार के टुकड़े को घूर कर उसमें से कोई ख़बर पढ़ जाने की धुन में हों। मैं रोने-रोने को हो आया। गले तक आकर रुलाई का भभका अटक गया था जिसे फूटने से मैं रोके हुए था।

दादा के सामने मैं था। कक्का बैठे थे। दादा ने दोनों को नहीं पहचाना। पहचानने का कोई प्रयत्न भी कहीं नहीं था। बल्कि वह देर तक उस नर्स को ताकते रहे जो ड्रेसिंग करने आई थी।

कक्का ने दो-एक बार ज़ोर से कहा, ‘भाई, मुन्ना की ओर देखो। रो रहा है, सुनाई पड़ता है?’ दादा लेकिन निर्लिप्त ही थे। रात दस बजे दादा ने पानी माँगा। तब तक मैं रिश्तेदारों को तार कर चुका था कि ऑपरेशन सफल रहा।

वह मुस्कुराए कि लो… आख़िर मैं लौट आया। तुम लोगों ने तो विदा ही दे दी थी। वह उस समय सचमुच कहीं बहुत दूर से आते हुए लग रहे थे। बहुत सारी सीढ़ियाँ एक साँस में चढ़ जाने पर जैसी थकान और विजय में रँगे हुए चेहरे की चमक होती है। उन्हें धीरे-धीरे हँफनी छूट रही थी। साँसें बढ़ गई थीं।

फिर भी उनके चेहरे की ओर देर तक देख पाने का हौसला मुझमें बार-चार चुक जाता था। उन्हें सुबह उठकर साबुन की झाग लगाकर उस पर शेविंग ब्रुश की फट-फट करते मैं सालों से देखता रहा था। वह दाढ़ी बनाते वक़्त एक खेल खेलते रहते थे। ब्रुश फटफटाते तो साबुन के छींटे आस-पास, कमरे-भर में उड़ने लगते। फिर बार में रेज़र चलाने के बाद, तौलिये से पोंछते ही एक साफ-सुथरा गोरा चेहरा निकल आता। दादा का चेहरा।

अब वहाँ एक बिना शक्ल का लोंदा था। मांस का लोथड़ा। कैंसर था जिसका ऑपरेशन हुआ था। कार्सीनोमा ऑन चीक। यानी गाल के भीतर-भीतर दाढ़ों से होता हुआ गले में स्वर यंत्र तक फैला हुआ राज रोग। दुनिया के तमाम वैज्ञानिकों के पास जिसकी कोई दवा नहीं।

मैं भागकर नर्स के पास पहुँचा। दादा पानी माँग रहे थे। वह केरल की रही होगी। काली और सुन्दर। और बिल्कुल दुबली। दुबली नर्सों को देखकर मुझे लगता है कि वे गुस्सैल और चिड़चिड़ी होंगी। प्यार भी करती होंगी तो आदमी को तोता बनाकर पाल लेती होंगी।

नर्स परेशान हुई। फिर डॉक्टर से पूछने चैंबर में चली गयी। जब लौटी तो उसके हाथ में रबर की एक ट्यूब थी। फीडिंग ट्यूब। फीडिंग ट्यूब दादा की नाक में डाल दी गयी। काफी भीतर तक कि उसका एक छोर आहार नली तक पहुँच जाए। इसी ट्यूब से पानी देना होगा। सीरिंज में भरकर। भूख लगे तो लिक्विड फूड। तरल भोजन। जैसे दूध, फलों के रस, प्रोटीनेक्स, कच्चे अण्डे और मौसमी के रस का घोल। दादा असहाय थे इस कदर।


अगले एपिसोड के लिए कॉइन कलेक्ट करें और पढ़ना जारी रखें


कमेंट (0)