एपिसोड 1
आज भी चाय घड़ी में लोग साथ बैठकर एक कप चाय के ऊपर राजनीति से लेकर खेल, दूसरे शहरों की या फै़शन और फ़िल्मों की बातें किया करते थे
"चाय शाय"
डिब्रूगढ़ से क़रीब ढाई सौ किलोमीटर दूर एक छोटा-सा क़स्बा, चाय घड़ी। चाय घड़ी को यह नाम कैसे मिला, इसके बारे में कोई नहीं जानता। कोई कहता है कि अंग्रेज़ अफ़सर यहां से गुज़रते हुए असम की चाय पीने के लिए रुका करते थे। तो कोई इस क़स्बे के नाम का सारा श्रेय सरदार लखन सिंह को देते, जिन्होंने आज़ाद हिंदुस्तान का पहला चाय कैफे़ खोला था चाय घड़ी में।
अब वजह जो भी हो, चाय घड़ी असम की चाय की खु़शबू से रचा-बसा ठंडी हवाओं के बीच एक खू़बसूरत क़स्बा। उसकी नमी और चाय बागानों की हरियाली और इस छोटे-से क़स्बे का सादगी भरा जीवन। यहां के लोग आपस में इतने मशगूल रहते थे कि बाहरी दुनिया से ज़्यादा वास्ता नहीं था। आज 70 बरस से ज़्यादा पुराना यह छोटा-सा क़स्बा किसी भी शहरी इंसान को ठहरे वक़्त का-सा एहसास देगा।
यूँ तो बदलते वक़्त के साथ बाक़ी के हिंदुस्तान की तरह धीरे-धीरे इंटरनेट और मसरूफ़ियत ने चाय घड़ी में भी अपने पैर जमा लिए थे, लेकिन फिर भी यहां की शामें खू़बसूरत हुआ करती थीं। आज भी चाय घड़ी में लोग साथ बैठकर एक कप चाय के ऊपर राजनीति से लेकर खेल, दूसरे शहरों की या फै़शन और फ़िल्मों की बातें किया करते थे।
चाय की सबसे फे़वरेट, सबसे पसंदीदा जगह सभी की एक थी "चाय शाय"! चाय घड़ी में सरदार लखन सिंह और उनकी पत्नी प्रीत कौर द्वारा बनाया गया पहला चाय कैफे़। 1952 में सरदार लखन और प्रीत कौर एक नए शादीशुदा जोड़े के रूप में हिंदुस्तान आए थे। पेशावर में उनकी बहुत बड़ी बेकरी की दुकान थी "लाहौर बेकर्स" के नाम से, जिनके बनाए बिस्किट पूरे पेशावर में असम की चाय के साथ पेश किए जाते थे।
यह वह वक़्त था जब असम और पेशावर एक हुआ करते थे। लेकिन आज़ादी के लिए एक साथ लड़ने वाले भाई अब आज़ाद हिंदुस्तान के बंटवारे के लिए लड़ रहे थे। बदले वक़्त में हिंदुस्तान में रहने वाले हिंदू और मुसलमान एक थाली में रोटी खाने वाले भाई भी एक-दूसरे की नफ़रत में इस हद तक अंधे हो गए थे कि भाईचारे के सारे रिश्ते दुश्मनी में बदल चुके थे।
उस गु़स्से और नफ़रत की आग ने न जाने कितने परिवारों को जलाकर राख कर दिया। सरदार लखन सिंह का परिवार भी उन्हीं में से एक था।
सितंबर 1947 में जब सरदार लखन सिंह नई नवेली दुल्हन प्रीत कौर का हाथ पकड़कर हिंदुस्तान की सरज़मीन पर आए तो अपने पीछे अपने परिवार और अपने चाहने वालों के शवों को छोड़कर आए थे। वाघा बॉर्डर पर हालत यह थी कि बहुतों को दाह-संस्कार भी नसीब नहीं हुआ। विवाह में सरदार लखन सिंह और हरप्रीत कौर ने एक-दूसरे से ज़िंदगी भर साथ निभाने का वादा किया था। शायद नई ज़िंदगी की चाह और एक-दूसरे का साथ ही इन्हें हिम्मत दे रहा था। इन हादसों को दोनों किसी तरह बर्दाश्त करते हुए दिल्ली तक पहुंचे। चार दिन की भूख-थकान ने प्रीत कौर की हालत ऐसी कर दी थी मानो बरसों से चल ही रही है।
दिल्ली में गुरुद्वारा शीशगंज के सामने प्रीत कौर लड़खड़ा कर बेहोश हो गई। उस बेहोशी में जैसी ख़ामोशी थी, वही अब दोनों देशों की सरहद पर छाई हुई थी। एक तूफ़ान के गुज़र जाने के बाद की ख़ामोशी। ऐसा तूफ़ान, जिसने इतिहास पर कालिख पोती और न जाने कितने इंसानों के भविष्य पर जख़्म दिए थे, जो शायद आज तक भरे नहीं जा सके। गुरुद्वारे से निकले भाई जी ने इसमें जोड़े की मदद की और इन्हें और इन जैसे रिफ़्यूजियों को आराम करने के लिए एक कोना दे दिया।
दिन गुज़रते गए। लखन सिंह और प्रीत कौर देश के नए माहौल में ढलने का पूरा प्रयत्न कर रहे थे। एक ऐसी ज़िंदगी जो सिर्फ उन दोनों की है। जिसे उन दोनों को मिलकर आगे बढ़ाना है और फिर एक परिवार तैयार करना है। उनके कोई दूर-दराज़ के रिश्तेदार जालंधर और अमृतसर में बसे थे, लेकिन लखन सिंह ने तय किया कि वह अपनी ज़िंदगी के धागे नए सिरे से खु़द बीनेगा। प्रीत कौर भी अपने बचपन का देश, शहर और लोग, सब कुछ खो चुकी थी। दोनों का दर्द एक था। दोनों की खुशियां एक थीं और अब दोनों की ज़िंदगी भी एक थी।
लखन सिंह पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर के एक ग्रेजुएट थे। लखन सिंह ने नौकरी की तलाश शुरू की और जल्द ही उन्हें असम के पास डिब्रूगढ़ में एक चाय बागान में एस्टेट ऑफ़िसर की नौकरी मिल गई। लखन सिंह प्रीत कौर के साथ इस छोटे से क़स्बे में आ गए। यहां कुछ गिने-चुने लोग और ढेर सारे चाय के बागान थे। इस क़स्बे की नैसर्गिक सुंदरता और शांति ने इस जोड़े को जल्द ही अपना सारा दुख-दर्द भुलाने पर मजबूर कर दिया।
सारे दुख परे कर ज़िन्दगी फिर एक बार मुस्कराने लगी। प्रीत कौर भी पास के एक स्कूल में बच्चों को पढ़ाने की नौकरी पर लग गई और अब दोनों अपने टूटे घर को घर बनाने की कोशिश में थे। धीरे-धीरे लखन सिंह-हरप्रीत कौर की ज़िंदगी में खु़शियों ने दस्तक देनी शुरू कर दी थी।
अगले कुछ सालों में जहां एक तरफ चाय बागान का काम लखन सिंह को अपनी पहचान बनाने का मौक़ा दे रहा था, वहीं प्रीत कौर ने दो बेटे और एक बेटी को जन्म दिया और जल्दी ही इनका परिवार पूरा हो गया। लखन सिंह मेहनती था और धीरे-धीरे एक छोटे-से टी एस्टेट का मालिक बन गया और प्रीत कौर ने शुरू की एक बेकरी। अब बेकरी का नाम रखा "चाय शाय", बिल्कुल वैसे ही, जैसे आम हिंदुस्तानी भाषा में बोला जाता है "चाय शाय पी कर जाओ"
प्रीत कौर की बेकरी में बेक होते थे लज़ीज़ दिलखु़श। दिलखु़श बनाने की कला प्रीत कौर अपने साथ लाहौर से ले आई थी। लाहौर बेकर्स के प्रसिद्ध दिलखु़श अब डिब्रूगढ़ के चाय गढ़ी में मिलते थे। साल गुज़रते गए और धीरे-धीरे “चाय शाय” ने भी तरक्की की। आज वह इस छोटे से शहर का बेस्ट कैफे़ माना जाता है, जहां पर सभी टूरिस्ट एक बार ज़रूर आते हैं।
तक़रीबन दस साल पहले लखन सिंह इस दुनिया को छोड़ कर चले गए। प्रीत कौर एक बार फिर अकेली हो गई थी, लेकिन ज़िन्दगी का पन्ना है, जिसे उसे अपने तरीके से लिखना है। यही उसने सरदार लखन सिंह से सीखा था और अब प्रीत कौर सिंह परिवार की मुखिया है। उसका एक बेटा चाय बागान के काम को संभालता है और दूसरा लंदन में रहता है। बेटी की भी शादी हो चुकी है और अब वह अपने दिन अपने परिवार के साथ गुज़ारती है और अब भी गुनगुनाती है वह गाना, जो उसने बाबा बुल्ले शाह की दरगाह पर सुना था आज से 50 साल पहले…
इह दुख जा कहूं किस आगे,
रोम रोम घा प्रेम के लागे।
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कमेंट (7)
- Baasab Chandana
वाह! कहानी की बुनने की प्रक्रिया काफ़ी रोचक
0 likes - Pragati Tripathi
बहुत सुंदर
0 likes - Deepali Singh
धर्म पर विश्वास शक्ति देता है और अन्धविश्वास विनाश!
0 likes - Mousami Arya
देश छोड़ना देह छोड़ने जैसा ही है छटपटाहट दोनों में ही होती है देह छूटने पर आत्मा परमात्मा में विलीन होती है aur देश छूटने पर उसी देश मे रह जाती है
0 likes - Sonu Yashraj
रोचक
0 likes - Jagdish Kaushal
1 jehadi 2 hindu maha sabha3 matlabi neta 4 jati vad 5 bhadkana
0 likes - Jagdish Kaushal
khatarnak hoti nahi kuchh kattarvadi ese khatarnak bana dete he
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