एपिसोड 1

जली हुई बस उसके लिए पुरानी पहेली सुलझा रही थी।  हरदम से वह यह जानना चाहता था कि बसों का ढांचा कैसे आखिर तैयार होता होगा? दो कुत्ते जली हुई बस के साए में आराम फरमा रहे थे।  

दंगा

जून की कोई शाम थी जो चौतरफा घिर चुकी थी पर अगली सुबह अनिकेत को दिल्ली होना था। बठिंडा के होटल से निकलते हुए उसे बीते दिन की तपिश का अहसाह हुआ। होटल का मीटिंग हॉल पाबन्द था इस वजह से वहाँ लू और समाचार पूरे दिन नहीं पहुंच सके थे। अब सूर्य इस तरह डूब रहा था कि अनिकेत की परछाईं बहुत लम्बी होकर होटल की दीवार के सहारे टंगी हुई थी।

दंगे के सबब मर्द मानुष कहीं नहीं थे वरना शाम के इस वक़्त परछाइयाँ भरपूर कुचली जातीं हैं। ऑफिस से ख़ुश-ख़ुश निकले तो अनिकेत यह खेल अक्सर खेलता है। किसी की परछाईं पर खड़ा हो जाता है। ख़ासपसन्द, शाम पर पड़ती रितु की परछाइयाँ।     

पंजाब हरियाणा की सेल्स रिव्यू मीटिंग खत्म हुई ही थी। हिन्दू होने की बिना पर होटल बिल जमा करते हुए भी वो दंगे की नहीं, दिन की गर्मी के बारे में सोचता रहा। देखने सुनने में वह, सबकी तरह, दंगे के खिलाफ़ नज़र आता था।  

जो सड़को पर घट रहा था उसका उसे रंज था पर दंगाई गतिविधियों से ज्यादा हैरान गर्मी कर रही थी। ऐसे मौसमों का आविष्कार अभी बाक़ी था जो आबादी देख और नारे सुन कर आया करें। 

शाम का रंग कुछ ऐसा था कि रिक्शे कहीं नहीं थे। सड़क के मुहाने पर काँच के टुकड़े बिखरे हुए थे।  सूरज जबकि छिप चुका था फिर भी हवा में बची हुई रौशनी और धरती से परावर्तित किरणें काँच के इन टुकड़ों से कई सारी रंगीनियाँ बिखेर रही थीं। रौशनी की तेज चौँध से आँखे चुराते हुए अनिकेत ने पश्चिम की ओर देखा; जली हुई बस खड़ी थी।  

बस देखने के बाद उसे चिरायंध महसूस हुई। जली हुई बस उसके लिए पुरानी पहेली सुलझा रही थी। हरदम से वह यह जानना चाहता था कि बसों का ढांचा कैसे आखिर तैयार होता होगा? दो कुत्ते जली हुई बस के साए में आराम फरमा रहे थे।  

अनिकेत को सड़क तक छोड़ने सुखपाल आया था जिसकी औपचारिकताएँ भी सहज लगती थीं। उसने आज रात रुकने की बात सुझाई।  कहा: आगरा और जयपुर टीम की मीटिंग बाद में भी हो लेगी। अनिकेत को ‘सेल्स मीट’ के बहाने रितु से मिलने के लिए जाना ही जाना था, इसलिए तय यह हुआ : यहाँ से किसी निजी वाहन पर टँग कर पटियाला जाना होगा, वहाँ से रात के दस बजे हरियाणा रोडवेज की एक बस पेहवा, इस्माईलाबाद होते हुए दिल्ली जाती है।  

यह जगह शहर के बाहर थी।  कैंचिया मोड़ पर पुलिस वाले ज़रूर थे पर शाम के नाते ज़रा-सी आवाजाही बढ़ गई थी। दूध का एक टैंकर और खुली हुई एक जीप आई जिसमें कुछ औरतें और बहुत सारी बकरियां थी। अनिकेत को ऐसी सवारियाँ साधने से परहेज न था पर दोनों संगरूर तक ही जा रही थीं।  

शाम चढ़ रही थी और इनका इंतज़ार बढ़ता जा रहा था। सुखपाल ने दिल्लगी की: सर क्यों मुश्किल में पड़ते हो? कुछ उल्टा सीधा हो गया तो? होने वाली भाभी को हम क्या मुँह दिखायेंगे? जैसा कि होता है, सेल्स टीम जल्द ही द्विअर्थी बातों पर उतर आती है, यहाँ भी अट्ठाईस वर्षीय अनिकेत को लेकर ‘डबल’ चलने लगा।  

तब तक एक कार आती हुई दिखी। हाथ दिया। कारचालक ने ऐसी तेज ब्रेक लगाई कि सड़क की चीख निकल गई। यह बूझते ही कि कार उनके ही हाथ देने से रूकी, दोनों दौड़ पड़े।  

कार में दो जने थे। एक ड्राइवर साइड और दूसरा कंडक्टर साईड। सुखपाल ने उनसे बात की। उन्होंने सुखपाल से पूछा- जाना कहाँ है? और क्या दोनों जा रहे हैं? जवाब में पटियाला सुनकर उन दोनों ने एक दूसरे को देखा और बताया कि वो भी पटियाले ही जा रहे हैं।  

कार के भीतर आते ही अनिकेत ने अपनी आंखें बंद कर राहत की दो छोटी छोटी साँस ली। खुशी से उसकी मुट्ठी भींच गई थी। आँखे खोल सामने देखा तो पाया -  सामने जो आईना (रियर व्यू मिरर) था उसमें से दो जोड़ी आँखे उसे देखे जा रह थीं। अपलक। जब अनिकेत की निगाह आईने की उन नजरों से मिली तब तक कार चल पड़ी थी। बठिंडा छूट रहा था और अगली सुबह उसे दिल्ली होना था।   

अनिकेत की नजर फिर फिर सामने उठी तो पाया कि आईने से वो दो जोड़ी आँखे अब भी उसे देखे जा रही हैं। उनकी आँखों में गंभीरता और अपरिचय का गहरा भाव दिख रहा था।  निगूढ़। अनिकेत को भारी बेचैनी होने लगी पर उसने आँखों ही से मुस्कुराकर टाल दिया और खिड़की से बाहर देखने लगा।  बाहर जो लाइलाज अंधेरा था वो सुबह की रौशनी के इंतज़ार में पसरा हुआ था।   

सामने बैठे लोगों ने अपना परिचय दिया। मुझे लकी कह सकते हैं और इसे (कार चला रहे शख्स की ओर इशारा कर) मेजर कहा जाता है। और सर, आपका परिचय?

अनिकेत: अनिकेत दीक्षित, रहने वाला गाँव बौली, जिला देवरिया का हूँ, रहता चंडीगढ़ हूँ।  

लकी: काम क्या करते हैं? यह लैपटॉप है?

अनिकेत: जी हाँ। साथ में इंटरनेट भी।  

लकी: फोन भी होगा?

अनिकेत: वह भी है।

लकी: काम नहीं बताया? यह सवाल अनिकेत को खटका पर उसने जवाब में अपनी कंपनी का नाम बताया और अपना पद भी, जो हर छ: सात महीने में तबादलों के साथ बदलता रहता था। 

मेजर: सर, आपका पहचान पत्र भी होगा?

अनिकेत : हाँ। कई सारे हैं।  

मेजर : सर, बुरा ना माने तो आपका पहचान पत्र देख सकता हूँ? अनिकेत भला क्यों बुरा मानता। कार चल रही थी। सड़क पर शाम की गर्म हवा के बाद अब वातानुकूल से अनिकेत सुस्त हो रहा था। कार्ड निकाल ही रहा था कि उसका फोन बजा - सुखपाल था। कह रहा था, दिल्ली पहुंच कर खबर कर देना, बॉस। अनिकेत ने हँसी में लपेटकर कहा, पहले दिल्ली पहुंचने तो दो।  

फोन से ध्यान हटा तो पाया कि लकी उसकी ओर देख रहा है। अनिकेत ने विजिटिंग कार्ड थमा दिया।  कार्ड निरेखते हुए लकी ने पूछा: सर, आप दिल्ली जा रहे हैं? अनिकेत: जी।  लकी (अनिकेत को प्रश्नवाची निगाह से देखते हुए): पर आपने तो हमें पटियाला बताया था?

अनिकेत: मतलब?

लकी: अरे! मतलब तो आप मुझे बताएंगे। अनिकेत अचम्भे में पड़ गया। हँसने की अधूरी कोशिश करते हुए बताया- दरअसल पटियाला से दिल्ली के लिए रात के ग्यारह बजे की बस है। दंगे के कारण बठिंडा में कर्फ्यू था और वहाँ से बस सेवा आज ठप्प थी।  

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