एपिसोड 1
अनुक्रम
साक्षात्कार
एपिसोड -1 : यह अंत मेरा ही नहीं, हमारी पूरी पीढ़ी की नियति हैः राजेन्द्र यादव
एपिसोड -2 : आत्मकथा का आधार
एपिसोड -3 : लेखन की कुंजी : ईमानदारी
एपिसोड -4 : चरैवेति चरैवेति
एपिसोड -5 : सभी कलाएं रेपेटिशन हैं
एपिसोड -6 : दलित लेखन के राह में रोड़े
एपिसोड -7 : लेखन क्या होता है?
एपिसोड -8 : कला का ध्येय
एपिसोड -9 : लेखन जुनून माँगता है
एपिसोड -10 : साहित्यिक घनिष्ठता और दुराव
एपिसोड -11 : सीख और सृजन के स्रोत
एपिसोड -12 : जीवन-शून्य
एपिसोड- 13 : पूरी पीढ़ी की नियति
मूल्यांकन
एपिसोड- 14 : व्यक्ति एक, चेहरे अनेक : राजेंद्र यादव से पहचान
एपिसोड - 15 : अनुभव की हद: आर्ट
एपिसोड - 16 : स्ट्रे रीडिंग
एपिसोड - 17 : उपन्यासकार
एपिसोड - 18 : एक साहित्यिक की नजर
एपिसोड - 19 : चेखव का काल्पनिक साक्षात्कार
एपिसोड - 20 : उस्तादों की आजमाइश
एपिसोड - 21 : निर्मल वर्मा और राजेंद्र यादव : नई कहानी के दो अक्ष
एपिसोड - 22 : ‘हंस’ का मंच - 1
एपिसोड - 23 : हंस का मंच - 2
एपिसोड - 24 : और अंत...
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मैं उन उम्रदराज सज्जन के प्रति मुखातिब हो ही रहा था, और वे सज्जन एक अजनबी से परिचय करने की सादगी ओढ़ ही रहे थे, कि राजेन्द्र जी ने बीच में एक पाइप का कश लेकर कुछ सहमति मांगने की मुद्रा में सायास शालीनता सहेजकर तुरन्त जोड़ा, ‘लेकिन आजकल थोड़ा सनक गए हैं... उम्र के कारण’ और हम तीनों ही ठहाकों के दरिया में कूद पड़े।
यह अंत मेरा ही नहीं, हमारी पूरी पीढ़ी की नियति हैः राजेन्द्र यादव
(राजेन्द्र यादव से बातचीत)
राजेन्द्र यादव ऐसा करंट है जिसने प्रशंसकों और असन्तुष्टों के ढेर सारे ध्रुव बनाए हैं। शातिर और शराबी (जो फिलहाल डॉक्टरी सलाह के कारण वे नहीं हैं। अन्यथा भी, दो पैग से आगे वे शायद ही गए हों) से लेकर मौकापरस्त और व्यभिचारी- कोई ऐसा इल्जाम नहीं है जो इस साहित्यिक डॉन पर विरोधी नहीं लगाते हों। और उनके विरोधियों की आबादी भी कम नहीं कूती जा सकती है। दूसरी तरफ इस बात से भी कोई इनकार नहीं कर पाता है कि इस शख्स में भयंकर प्रतिभा है, गजब का अध्ययन है। बेजोड़ तर्क हैं, बारीक पड़ताल है, भाषा है, और सबसे खूबसूरत बात ये कि आला दर्जे की जीवन्तता है। जिन्दगी के एक-एक पल को साहित्य के सुपुर्द करके जीना उनकी पहचान है।
पहचान का दूसरा पहलू यह भी है कि अगले को चर्चा में रहने का शगल है। इसके लिए जो हौसला-हिम्मत और जज्बा चाहिए, वह भी भरपूर है। वर्ना क्या वजह है कि जब वे कहानी, उपन्यास लिखते थे तब भी चर्चा में रहते थे और आज जब आलोचनात्मक लेख या सम्पादकीय लिखते हैं, तब भी खूब चर्चा में रहते हैं। यही कारण है कि कोई नई शुरू होने वाली साहित्यिक पत्रिका हो या किसी स्थापित पत्रिका का विशेषांक, राजेन्द्र जी का कुछ नहीं तो ‘साक्षात्कार’ तो होगी ही। इस मामले में संभवतः नामवर सिहं ही उनके निकटतम हों। लेकिन हिंदी साहित्य में, अन्य बहुत सारी चीजों की तरह, वे एक पहेली-सी भी हैं।
‘किताबघर’ से आई उनकी पुस्तक ‘मेरे साक्षात्कार’ में संकलित अनेक महत्त्वपूर्ण साक्षात्कारों के बावजूद मुझे बहुत दिनों से यह लग रहा था कि कुछ चीज़ें हैं, जैसे दलित साहित्य, जिन पर उनसे मुठभेड़ करनी चाहिए। कुछ और हैं। जैसे उनका निजी जीवन, जिसे कुरेदा जाना चाहिए तथा कुछ और प्रश्न जैसे आत्मकथा से बचते रहने के लिए उन्हें घेरा जाना चाहिए। इस बातचीत के केन्द्र में संभवतः यही मुद्दे रहे हैं मगर रवानगी में दूसरी बातें भी उभरकर आई हैं जो कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। खैर, यह निर्णय पाठकों के विवेक पर है कि किन कम महत्त्वहीन सवालों के भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण जवाब दिए हैं और किनसे महज कन्नी काटी है। मैं यह मानता हूं कि साक्षात्कार करने वाले के प्रति एक न्यूनतम और वस्तुनिष्ठ सम्मान और रुचि के अभाव में कोई भी साक्षात्कार बहुत ऊंची सरहदें नहीं पार कर सकता। शायद यह शर्त लक्ष्य पाठकों की मानसिक बुनावट के लिए भी उतनी ही खरी हो।
साक्षात्कार दिए जाने की संख्या के आधार पर कहा जा सकता है कि राजेन्द्र जी लगभग व्यावसायिक चरित्र हैं; हर तरह के सवाल आसानी से फेस करने के आदी। अपनी व्यक्तिगत ज़िन्दगी में झांकने का उन्होंने शायद ही किसी को मौका दिया हो। यहां मुझे लगा है, मैं उनका सुपात्र बना हूं। जब मन्नूजी (मन्नू भंडारी) या अपने अकेलेपन पर वे स्वयं को खोल रहे थे, तब मुझे लग रहा था जैसे मैं किसी बियावान खोह में घुस रहा हूं। मेरी तरफ से होने वाली जरा-सी फुसफुसाहट भी उस राग की रिदम को भंग कर देगी। बातचीत के अन्त में जब मैंने उनके घर में यूं ही दाखिल हो जाने की हिमाकत पर ‘सॉरी’ कहा तो शरारतन उसे नकारते हुए वे बोले, ‘तुमने ज्यादा प्रोब किया ही नहीं’। लेकिन मुझे लगा इससे ज्यादा प्रोब करना मेरी अपनी गरिमा और मर्यादा की परिधि के परे चला जाता।
पिछले कुछ दिनों से दलित साहित्य के राजेन्द्र जी बड़े प्रवक्ता रहे हैं। मगर अक्सर उनकी चीज़ें एकालाप की तरह आई हैं अतः यह वैचारिक दृष्टि के मतभेद का बड़ा बिन्दु था। लेकिन मित्रो, विश्वास करें, यहां मेरा मकसद उनके सरोकारों के सारतत्वों को, उनके यथासंभव अन्तविरोधों के साथ पकड़ना था, न कि अपने किसी आग्रह को उनके माध्यम से स्पष्ट करना।
बातचीत को कागज पर उतारने के बाद मुझे यह बहुत शिद्दत से लगा है कि इसमें वह मांस-मज्जा और ध्वनि (जिसे सीधे शब्दों में कहा जाए, राजेन्द्रजी के ठहाके) नदारद हैं जिसके पकड़ने की अपेक्षा में यह बातचीत की गई थी। राजेन्द्रजी के ठहाकों का कोई क्रम या समय नहीं होता है। वे गहन गम्भीर मुद्दे पर बोलते हुए भी किसी को हंसा सकते हैं। उस दिन शाम को अगले दिन के लिए उनका समय मांगने मैं ‘अक्षर’ में बैठकर जब चाय पी रहा था तभी एक सज्जन से परिचय कराते हुए गम्भीरता से बोले ‘ये... फलां हैं... बहुत अच्छे लेखक और फिल्म निर्देशक हैं... तुमने इनका वो सीरियल देखा होगा’। मैं उन उम्रदराज सज्जन के प्रति मुखातिब हो ही रहा था, और वे सज्जन एक अजनबी से परिचय करने की सादगी ओढ़ ही रहे थे, कि राजेन्द्र जी ने बीच में एक पाइप का कश लेकर कुछ सहमति मांगने की मुद्रा में सायास शालीनता सहेजकर तुरन्त जोड़ा, ‘लेकिन आजकल थोड़ा सनक गए हैं... उम्र के कारण’ और हम तीनों ही ठहाकों के दरिया में कूद पड़े।
बातचीत के प्रारम्भ में वे थोड़े शंकित थे। जानना चाहते थे कि आखिर मैं उनसे क्या जानना चाहता हूं। इसलिए टेप को ‘ऑन’ करने से रोका। मैंने समझाया कि मेरा मानना है कि हिंदी साहित्य अपने दिग्गज लेखकों के बारे में कुछ भी नहीं जानता जबकि पश्चिम में ऐसे कितने उदाहरण नुमाया हैं, जहां लेखक के रसोइए या ड्राइवर तक ने अपने पूर्व हाकिम की जिन्दगी के बारे में अपने निरीक्षण दर्ज किए हैं। मेरी मंशा शायद उन्हें कहीं जंच गई और मैंने वहीं कहीं बिना बताए टेप ऑन कर दिया। एक ही दिन में तीन किस्तों में बातें हुईं जिसके बीच में ‘अक्षर’ का व्यवधान भी शामिल था। मुझे अभी भी लगता है कि अभी बहुत सारे मुद्दे— विशेषकर उनकी रचना प्रक्रिया और रचनाओं से संबंधित— बचे हुए हैं जिन पर बातें होनी चाहिए।
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कमेंट (9)
- निरंजन झा दरिहरे
अभी तो पढ़ना शुरू किया है, बहुत कुछ खुला नहीं है।पढ़ने के बाद कमेंट करूंगा।
0 likes - Tanuja Lalas
जोरदार
0 likes - Anil Kumar
hi hi hi hi
0 likes - Kamal Prithviraj Chauhan
9171301018
1 likes - Himani raghav
hi,baby
3 likes - Raju Meena
Raja Ram
0 likes - Rajesh Bopche
ha bat to sahi hai
3 likes - Baljeet
Jai Hind har karm apna karenge aa watan tere liye
2 likes - Vandana Singh
bahut boring lekh hai
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